इस बार गर्मी की छुट्टी में मुझे नानाजी के यहां जाने की बहुत खुशी हो रही थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि नानाजी ने एक छोटा सा पप्पी (कुत्ते का बच्चा) पाला है। मुझे पशु-पक्षी बहुत अच्छे लगते हैं।> > रास्तेभर मैं उसके बारे में सोचती रही, पर मेरी छोटी बहन अर्शी को जानवरों के बालों से एलर्जी थी। जब हम नानाजी के घर पहुंचे तो एक भूरे बालों वाला छोटा सा मोटा ताजा पप्पी दौड़ता हुआ आया और भौंकने लगा। मुझे थोड़ा सा डर लगा, पर मेरे मामा ने मेरी उससे मित्रता करा दी। उसका नाम विक्कू था।
एक दिन दोपहर में मैं विक्कू और नानी छत पर सूखे कपड़े उतारने गए तो विक्कू भी हमारे साथ आ गया। आंधी आई थी इसलिए पड़ोसी के आम के पेड़ से कुछ आम टूटकर हमारी छत पर गिर गए थे। विक्कू उन्हें गेंद समझकर खेलने लगा। मैं भी उसके साथ खेलने लगी। अब हमारी विक्कू से दोस्ती हो गई थी। मुझे विक्कू बहुत अच्छा लगता था। वह अजनबियों को देखकर बहुत भौंकता था।
एक शाम को हमारे नानाजी आंगन में बैठे थे कि उनसे मिलने उनके कुछ दोस्त आ गए। विक्कू उन्हें देखकर जोर-जोर से भौंकने लगा। इस पर नानाजी को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने पास पड़ी लकड़ी उठाई और 2-3 बार विक्कू को जोर से मार दिया। वह चिल्लाता हुआ अंदर चला गया। शायद उसे जोर से लग गई थी। मुझे विक्कू पर बहुत दया आई। अब विक्कू किसी को देखकर नहीं भौंकता था और गुमसुम-सा बैठा रहता था। जब भी नानाजी आते, वह सहमकर छुप जाता।
उस दिन दोपहर को हमारे अहाते में कुछ शरारती बच्चे घुस गए और कच्चे आम तोड़-तोड़कर खाने लगे। साथ ही नानी के बगीचे के फूल भी तोड़ लिए। विक्कू उन्हें चुपचाप देखता रहा, पर डर के मारे भौंका नहीं। तब नानीजी ने नाना को समझाया कि देखो, विक्कू को हमने अपनी सुरक्षा के लिए पाला है। उसके साथ प्यार से बात किया करो।
तब नानाजी ने विक्कू को बुलाया और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और दूध पिलाया। विक्कू खुश हो गया और हम सब पर भौंकने लगा। जोर-जोर से उछल-कूद करने लगा। हम समझ गए कि विक्कू बहुत खुश है इसलिए मस्ती कर रहा है। हम सब उसके साथ खेलने लगे।
घमंडी पर्वत
एक जंगल में एक विशाल पर्वत था । एक दिन उस विशाल पर्वत ने जानवरों को देखा , जंगल को देखा और फिर खुद को देखा । उसे अपने आकार पर बहुत घमंड हुआ उसने कहा मैं सबसे शक्तिशाली हूं , मैं ही तुम्हारा ईश्वर हूँ । पर्वत की यह बातें सुनकर सभी जानवरों को बहुत गुस्सा आया । घोड़े ने आगे बढ़कर कहा – ओ घमंडी पर्वत अपने आप पर इतना घमंड मत कर । एक क्षण में तुम्हें दौड़ कर पार कर सकता हूं , पर घोड़ा लड़घड़ा कर गिर गया ।
पर्वत दिल खोलकर हंसा , इसी तरह हाथी ,ऊँट ,जिराफ सभी ने कोशिश की पर वे पहाड़ का कुछ बिगाड़ नहीं पाए अब सभी जानवरों को अपना दोस्त चूहा याद आया । चूहा पर्वत के पास आया और उसने पर्वत को चुनौती दी । पर्वत ने चूहे का खूब मजाक उड़ाया । चूहे ने मुस्कुराते हुवे पर्वत में छेद बनाना प्रारंभ किया । अन्य चूहों ने भी पर्वत में छेद करना चालू कर दिया । पर्वत घबरा गया उसने सभी जानवरों से माफी मांगी । इस तरह पर्वत के घमंड को एक छोटे से चूहे ने तोड़ दिया ।
कल्पना की रस्सी
एक बार कि बात है एक व्यापारी था, उसके पास तीन ऊँट थे जिन्हें लेकर वो शहर-शहर घूमता और कारोबार करता था। एक बार कही जाते हुए रात हो गयी तो उसने सोचा आराम करने के लिए मैं इस सराय में रुक जाता हूं और सराय के बाहर ही अपने ऊँटो ने को बांध देता हूं, व्यापारी अपने ऊँटो को बांधने लगा। दो ऊँटो को उसने बांध दिया लेकिन जब तीसरे ऊँट को बांधने लगा तो उसकी रस्सी खत्म हो गई। तभी उधर से एक फकीर निकल रहे थे उन्होंने व्यापारी को परेशान देखा तो उससे पूछा: क्या हुआ? परेशान देख रहे हो? मुझे बताओ क्या परेशानी है शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकु!
व्यापारी ने कहा: हा बाबा, मैं पूरा दिन घूमते हुए थक गया हूं। अब मुझे सराय के अंदर जाकर आराम करना है लेकिन इस तीसरें ऊँट को बांधने के लिए मेरी रस्सी कम पड़ गयी है।
फ़कीर ने जब व्यापारी की समस्या सुनी तो वह बड़े जोर जोर से हंसने लगा और उसने व्यापारी को कहा: इस तीसरे ऊँट को भी ठीक उसी तरह से बांध दो जैसे तुमने बाकि 2 ऊँटो को बांधा है।
फकीर की यह बात सुनकर व्यापारी थोड़ा हैरान हुआ और बोला लेकिन रस्सी ही तो खत्म हो गई है।
इस पर फ़कीर ने कहा: हां तो मैने कब कहा कि इसे रस्सी से बांधो, तुम तो इस तीसरे ऊँट को कल्पना की रस्सी से ही बांध दों।
व्यापारी ने ऐसा ही किया और उसने ऊँट के गले में काल्पनिक रस्सी का फंदा डालने जैसा नाटक किया और उसका दूसरा सिरा पेड़ से बांध दिया। जैसे ही उसने यह अभीनय किया, तीसरा ऊँट बड़े आराम से बैठ गया।
व्यापारी ने सराय के अंदर जाकर बड़े आराम से नींद ली और सुबह उठकर वापस जाने के लिए ऊँटो को खोला तो सारे ऊँट खड़े हो गये और चलने को तैयार हो गया लेकिन तीसरा ऊँट नहीं उठ रहा था। इस पर गुस्से में आकर व्यापारी उसे मारने लगा, लेकिन फिर भी ऊँट नहीं उठा इतने में वही फ़कीर वहा आया, और बोला अरे इस बेजुबान को क्यों मार रहे हो?
कल ये बैठ नहीं रहा था तो तुम परेशान थे और आज जब ये आराम से बैठा है तो भी तुमको परेशानी है! इस पर व्यापारी ने कहा पर महाराज मुझे जाना है। मुझे देर हो रही है और ये है कि उठ ही नहीं रहा है।
फ़कीर ने कहा: अरे भाई कल इसे बांधा था अब आज इसे खोलोगे तभी उठेगा न
इस पर व्यापारी ने कहा:
मैंने कौनसा इसे सच में बाँधा था, मेने तो केवल बंधने का नाटक किया था।
अब फ़कीर कहा: कल जैसे तुमने इसे बाँधने का नाटक किया था वैसे ही अब आज इसे खोलने का भी नाटक करों।
व्यापारी ने ऐसी ही किया और ऊँट पलभर में ऊंट खड़ा हुआ।
अब फ़कीर ने पते की बात बोली: जिस तरह ये ऊंट अदृश्य रस्सियों से बंधा था, उसी तरह लोग भी पुरानी रीती रिवाजों से बंधे रहते है, ऐसे कुछ नियम है जिनके होने की उन्हें वजह तक पता नहीं होती, लेकिन लोग फिर भी लोग खुद भी उनसे बंधे रहते है और दूसरो को भी बांधना चाहते है और आगे बढ़ना नहीं चाहते, जबकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और इसलिए हमे रुढियों के विषय में ना सोचकर अपनी और अपने अपनों की खुशियों के बारें में सोचना चाहिए।
कीमती पत्थर
एक राजा ने बड़ी लगन से तरह तरह के बहुत कीमती मणि – रत्नों को इकट्ठा किया। वो बड़े घमंड से दूसरों को अपने कीमती रत्न दिखाता था। राजा की बहुत वाह वाही होती थी की कितनी मेहनत से राजा ने इतने कीमती रत्न इकट्ठे किये हैं।
एक दिन कहीं से एक महात्मा वहाँ आए और महल की एक एक चीज को बड़े ध्यान से देखने लगे। राजा ने सोचा की महात्मा उसके कीमती रत्नों को ही देखने आए हैं। राजा उन्हें अपने महल के खजाने में ले गया। वहाँ ढेरों हीरे, मोती, पन्ने, पुखराज आदि रखे हुए थे। राजा ने सोचा था की इतने कीमती रत्नों को देखकर महात्मा की आँखें खुली की खुली रह जाएंगी और वो हैरान हो जाएंगे लेकिन महात्मा ने उन रत्नों को ऐसे ही देखा जैसे कोई कांच के मामूली टुकड़ों या मिटटी के ढेलों को देखता है।
राजा उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए खुद एक एक रत्न की कीमत बताने लगा। यह सब सुनकर महात्मा ने राजा से पूछा – “महाराज इन रत्नों से आपको और राज्य को बड़ी आमदनी होती होगी”। राजा ने कहा – “महात्मा जी आमदनी कहाँ से होगी मुझे तो इन कीमती रत्नों को रखने के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है। इनकी रक्षा के लिए मैने बहुत से पहरेदार रखे हुए हैं और इनकी देखभाल का काम मेरे सबसे विश्वसनीय लोग करते हैं। इन रत्नों पर तो मेरा बहुत खर्चा होता है”। इस पर महात्मा जी बोले – “इस प्रकार तो ये तो बिलकुल व्यर्थ की चीजें हैं, आपने इन्हें क्यों रखा हुआ है?”। राजा को महात्मा की यह बात बहुत बुरी लगी, जिस चीज की राजा बढ़ाई सुनना चाहता था उस चीज की इतनी बुराई सुनकर वो झुंजला उठा।
राजा बोला – “अरे साधू जी आपको कुछ पता नहीं है, आपको इतने कीमती रत्न दिखाना तो ऐसे है जैसे भैंस के आगे बीन बजाना। आपको इन रत्नों का महत्व बिल्कुल नही पता इसलिए आप ऐसा कह रहे हैं। इन बड़े बड़े हीरों को देखिये, ये मामूली पत्थर नही हैं, बहुत कीमती हीरे हैं। ऐसे कीमती हीरे कहीं देखने को भी नही मिलते। कम से कम आपको तो कभी देखने को ना मिलते, आपने तो कभी सपने में भी नही सोचा होगा इनके बारे में”। महात्मा फिर शांत भाव से बोले – “महाराज गुस्सा ना कीजिए, मैंने इससे भी बड़े और मूल्यवान रत्न देखे हैं। यदि आप देखना चाहें तो चलिए मैं दिखाता हूँ आपको।” यह कहकर महात्मा महल से बाहर की ओर चल दिए। राजा को इस बात पर बिलकुल विश्वास नही हुआ, वो अपनी आँखों से इतने कीमती रत्नों को देखना चाहता था। राजा भी महात्मा के साथ चल दिया।
महात्मा और राजा दोनों एक गरीब की झोपडी पर पहोंचे। वहाँ एक बूढ़ी विधवा औरत आटा पीसने के लिए चक्की चला रही थी। महात्मा ने चक्की की ओर इशारा करते हुए कहा – “महाराज चक्की के इन बड़े बड़े दो पत्थरों को देखिये, इनके आगे आपके पत्थर दो कौड़ी के हैं। कोई चीज आदमी के जितने काम की होती है वो उतनी ही कीमती होती है। यह विधवा इन्ही पत्थरों की मदद से अनाज पीसती है, अपने परिवार का और अपना पेट भरती है। इसके विपरीत आप अपने पत्थरों को देखिये, वो बेकार पड़े रहते हैं, किसी के काम नही आते और उन्हें संभाल कर रखने के लिए आपको बहुत अधिक खर्चा भी करना पड़ता है।
कबूतर और लोमड़ी
जंगल में एक बड़े से पैर के ऊपर एक कबूतर अपना घोंसला बना कर रहता था। उसके तीन बच्चे भी उसके साथ घोंसले में रहते थे। बच्चे बहुत छोटे थे और उन्हें उड़ना भी नहीं आता था।
उसी पेड़ के पीछे एक लोमड़ी भी रहती थी। वो जब भी कबूतर को देखती उसके मुँह में पानी आ जाता। वह सोचती, ” काश ! मैं इसे खा सँकू “
एक बार बहुत बारिश हुई। चरों तरफ पानी भर गया। लोमड़ी को खाने को कुछ नहीं मिला। बारिश थी कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। और लोमड़ी का भूख से बुरा हाल था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
अचानक उसे ख्याल आया ” अरे! पेड़ पर तो कबूतर और उसके बच्चे रहते हैं। क्यों न उन्हें खाने की तरकीब सोचूँ। मजा आ जाएगा। “
लोमड़ी ने कबूतर को आवाज दी, ” अरे! कबूतर राजा। कहाँ हो। कई दिन से तुम्हे देखा नहीं। जरा नीचे तो आओ, थोड़ी गप्प-शप्प हो जाए। मन बहुत उदास हो रहा है। “
कबूतर ने सोचा, ” चलो, थोड़ी देर के लिए लोमड़ी से मिल आता हूँ। वह खुश हो जाएगी। “
जैसे ही कबूतर लोमड़ी के पास पहुँचा लोमड़ी ने झट से उसे पकड़ने की कोशिश की। लेकिन कबूतर समझ गया कि लोमड़ी उसे खाना चाहती है। बस फिर कबूतर फुर्र से उड़ कर पेड़ पे जा बैठा और लोमड़ी देखती ही रह गई।
सारस और लोमड़ी
एक बार एक लोमड़ी ने अपने दोस्त सारस को खाने की न्यौता दिया और खाने में खीर बनाया और उसे बड़े थाली में परोस दिया फिर सारस और लोमड़ी थाली में परोसे खीर को खाने लगे थाली काफी चौड़ी थी जिससे सारस के चोच में खीर की थोड़ी ही मात्रा आ पाती थी जबकि लोमड़ी अपने जीभ से जल्दी जल्दी सारा खीर खा लिया जबकि सारस का पेट भी नही भरा था जिससे लोमड़ी अपनी चतुराई से मन ही मन खुश हुई तो फिर सारस ने भी लोमड़ी को खाने का न्योता दिया फिर अगले दिन सारस ने भी खीर बनाया.
और और लम्बे सुराही में भर दिया जिसके बाद दोनों खीर खाने लगे सारस अपने लम्बे चोच की सहायता से सुराही में खूब खीर खाया जबकि लोमड़ी सुराही लम्बा और उसका मुह छोटा होने के कारण वहा तक पहुच ही नही पाता जिसके कारण वह सुराही पर गिरे हुए खीर को चाटकर संतोष किया फिर इस प्रकार सारस ने अपने अपमान का बदला ले लिया और लोमड़ी को अपने द्वारा किये हुए इस व्यव्हार पर बहुत पछतावा हुआ।
चालाकी का फल
रामपुर गांव में करीब 90 साल की एक बुढ़िया रहती थी जिसको ज्यादा उम्र होने के कारण ठीक से दिखाई नहीं देता था। उसने मुर्गियां पाल रखी थी और उन्हें चराने के लिए एक लड़की भी रखी थी। एक दिन अचानक वह लड़की नौकरी छोड़कर कहीं भाग गई। बेचारी बढ़िया सुबह मुर्गियों को चराने के लिए खोलती तो सारी की सारी पंख फड़फड़ाते हुए घर की चारदिवारी को नांघ जाती थी और पूरे मोहल्ले में कोको कुरकुर करके शोर मचाती थी।
कभी-कभी तो पड़ोसियों के घर में घुस कर सब्जियां खा जाती थी या फिर कभी पड़ोसी उनकी सब्जी बनाकर खा जाया करते थे। दोनों ही हालातों में बैठ नुकसान बेचारी बुढ़िया का ही होता था जिसकी सब्जियां खाती वो बुढ़िया को आकर भला बुरा कहता था और जिसके घर में मुर्गियां पकती उससे बुढ़िया की हमेशा के लिए दुश्मनी हो जाती हैं
थक हार कर बुढ़िया ने सोचा कि बिना नौकर के इन मुर्गियों को पालना मुझ जैसी कमजोर बुढ़िया के बस की बात नहीं है, कहां तक मैं इन मुर्गियों को हांकती रहूंगी। जरा सा काम करने से ही मेरा दम फूलने लगता है। यह सोचते हुए बूढ़िया डंडा टेकती नौकर की तलाश में निकल पड़ी। पहले तो उन्होंने अपनी पुरानी, मुर्गियां चराने वाली लड़की को ढूंढा परंतु उसका कहीं कुछ पता नहीं चला, उसके मां-बाप को भी अपनी लड़की के बारे में नहीं पता था कि वह कहां गई हैं ।
कुछ देर बाद रास्ते में उसे एक भालू मिला भालू बुढ़िया को नमस्कार करते हुए कहा आज सुबह-सुबह कहां जा रही हैं आप, सुना है आपकी मुर्गियां चलाने वाली लड़की भाग गई है कहिए तो मैं उसकी जगह नौकरी कर लूं खूब देखभाल करूंगा आपकी मुर्गियों की। बुढ़िया बोली अरे हटो! तुम इतने मोटे और बदसूरत हो तुम्हें देख कर ही मेरी मुर्गियां डर जाएंगी, ऊपर से तुम्हारी आवाज भी इतनी बेसुरी है कि उसे सुनकर वो दरबे से बाहर ही नहीं आएंगी, मुर्गियों के कारण मोहल्ले में ऐसे ही मेरी सब से दुश्मनी है और तुम जैसा जंगली जानवर को रख लूंगी तो मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा। छोड़ो मेरा रास्ता मैं खुद ही ढूंढ लूंगी अपने लिए नौकर”।
इतना ही कह कर बुढ़िया आगे बढ़ गई। थोड़ी देर बाद बुढ़िया को एक सियार मिला और बोला “राम राम बुढ़िया नानी! किसे ढूंढ रही हो आप?? बुढ़िया बोली मैं अपने लिए एक नौकरानी ढूंढ रही हूं जो मेरे मुर्गियों की देखभाल कर सकें, मेरी पुरानी वाली नौकरानी इतनी दुष्ट निकली कि वह बिना बताए ही कहीं भाग गई अब मैं अपनी मुर्गियों की देखभाल भला कैसे करूं, क्या तुम किसी ऐसी लड़की को जानते हो जिसे सौ तक की गिनती आती हो क्योंकि मेरे पास सौ मुर्गियां हैं जिनको गिनकर दरबे में रख सके।
यह सुनकर सियार बोला” बुढ़िया नानी यह कौन सी बड़ी बात है चलो अभी मैं तुम्हें एक लड़की से मिलाता हूं जो मेरे पड़ोस में ही रहती है वह रोज जंगल के स्कूल में जाती है उसे सौ तक तो गिनती आती ही होगी, आओ मैं तुम्हें उससे मिलाता हूं सियार भाग कर गया और अपने पड़ोस में रहने वाली पूसी बिल्ली को बुलाकर ले आया। बिल्ली को देख कर बुढ़िया बोली “हे भगवान! क्या जानवर भी कभी घर के नौकर हो सकते हैं जो अपना काम ठीक से नहीं कर सकते वह मेरा काम क्या करेंगी लेकिन पूसी बिल्ली बहुत ही चालाक थी आवाज को मीठा बनाकर बोली बुढ़िया नानी आप बिल्कुल परेशान ना हो कोई खाना बनाना पकाने का काम तो है नहीं जो कर ना सकू, मुर्गियों की देखभाल करनी है ना, वह तो मैं बहुत अच्छे से कर लेती हूं।
मेरी मां ने भी मुर्गियां पाल रखी है मैं उनकी देखभाल करती हूं और गिनकर दरबे में रखती हूं। बुढ़िया दादी ने उसकी बात सुनकर उसको नौकरी पर रख लिया।
पूसी बिल्ली ने पहले ही दिन मुर्गियों को दरबे से निकाला और खूब भागदौड़ की जिसे देख कर बुढ़िया दादी संतुष्ट हो हुई और सोने के लिए चली गई। पूसी बिल्ली ने मौका देखकर पहले ही दिन 6 मुर्गियाँ मारकर खा गई। बुढ़िया जब शाम को जगी तो उन्हें बिल्ली के इस हरकत के बारे में कुछ पता नहीं था एक तो उन्हें ठीक से दिखाई नहीं देता था और फिर भला इतनी चालाक बिल्ली की शरारत को कहां समझ पाती। पड़ोसियों से अब बुढ़िया की लड़ाई नहीं होती थी क्योकि मुर्गियां उनकी सब्जियां नहीं खाती थी धीरे-धीरे बुढ़िया को पुसी बिल्ली पर इतना भरोसा हो गया कि उसने दरबे की तरफ जाना ही छोड़ दिया।
एक दिन ऐसा आया जब दरबे में सिर्फ 25 मुर्गियां बची उसी समय बुड़िया भी टहलते हुए वहां आ गई इतनी कम मुर्गियों को देख कर बुढ़िया ने तुरंत बिल्ली से पूछा “क्योंरि और मुर्गियों को तुमने कहा चरने के लिए भेजा है” पुसी बिल्ली ने जवाब दिया सब पहाड़ पर चली गई हैं मैं कितना बुलाती हूं पर वह आती ही नहीं बहुत शरारती हो गई है।” अभी जाकर देखती हूँ कि ये इतनी ढीठ कैसे हो गयी हैं? पहाड़ के ऊपर खुले में घूम रही हैं। कहीं कोई शेर या भेड़िया आ ले गया तो बस!” बुढ़िया बड़बड़ाती हुई पहाड़ पर चढ़ गई वहां सिर्फ मुर्गियों की हड्डियां और उनके पंख पड़े हुए थे उसे देखकर बुढ़िया पूसी बिल्ली की सारी करतूत समझ गई, वह तेजी से घर की ओर लौटी।
इधर पूसी बिल्ली ने छोड़ सोचा बुढ़िया को आने में अभी वक्त लगेगा क्यों ना बची हुई मुर्गियों को भी खा लिया जाए। वह उन्हें मारकर खाने जा ही रही थी कि तभी बुढ़िया लौट कर आ गई, यह सब कुछ देख कर बुढ़िया आग बबूला हो गई। उसने पास पड़ी कोयलों की टोकरी उठा कर पूसी के सिर पर दे मारी। पूसी बिल्ली को चोट तो लगी ही, उसका चमकीला सफेद रंग भी काला हो गया। अपनी बदसूरती को देखकर वह रोने लगी।
बेवकूफ गधे की फनी कहानी
पुराने समय की बात है। एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरूरत थी, जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौड़ा हो जाता।
एक दिन शेर ने एक बिगड़ैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड़ दिया।
किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगों की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, लेकिन शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड़ जाए।
शेर ने एक दिन उसे सुझाया 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करूं? तू जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।'
गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।
गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पायं लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो गए हो, क्या बात हैं?'
गधे ने अपना दुखड़ा रोया 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।'
गीदड़ ने उसे न्यौता दिया 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।'
गधे ने कान फड़फड़ाए 'राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।'
'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।' गीदड़ बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई हैं, तुम उसके साथ घर बसा लेना।'
गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाड़ी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था। इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आंखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला 'भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।'
गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?'
'उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आंखें दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।
गीदड़ नकली माथा पीटकर बोला 'चाचा ओ चाचा! तुम भी नीरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखें चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?'
गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड़ की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पड़ा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा।
रितेश के तीन खरगोश
रितेश का कक्षा तीसरी में पढ़ता था। उसके पास तीन छोटे प्यारे प्यारे खरगोश थे। रितेश अपने खरगोश को बहुत प्यार करता था। वह स्कूल जाने से पहले पाक से हरे-भरे कोमल घास लाकर अपने खरगोश को खिलाता था। और फिर स्कूल जाता था। स्कूल से आकर भी उसके लिए घास लाता था।
एक दिन की बात है रितेश को स्कूल के लिए देरी हो रही थी। वह घास नहीं ला सका , और स्कूल चला गया। जब स्कूल से आया तो खरगोश अपने घर में नहीं था। रितेश ने खूब ढूंढा परंतु कहीं नहीं मिला। सब लोगों से पूछा मगर खरगोश कहीं भी नहीं मिला।
रितेश उदास हो गया रो-रोकर आंखें लाल हो गई। रितेश अब पार्क में बैठ कर रोने लगा। कुछ देर बाद वह देखता है कि उसके तीनों खरगोश घास खा रहे थे , और खेल रहे थे। रितेश को खुशी हुई और वह समझ गया कि इन को भूख लगी थी इसलिए यह पार्क में आए हैं। मुझे भूख लगती है तो मैं मां से खाना मांग लेता हूं। पर इनकी तो मैं भी नहीं है। उसे दुख भी हुआ और खरगोश को मिलने की खुशी हुई।
लालची कबूतर
जंगल में एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पर दिन भर पक्षी बैठा करते थे। सारा दिन उन पक्षियों की चहक और मस्ती रहती थी। उस पक्षियों के झुंड में एक कबूतरों का झुंड भी था
ये देख एक पक्षियों के व्यापारी ने उन कबूतरों को पकड़ने की योजना बनाई। एक दिन जब सारे पक्षी आसमान में उड़ रहे थे तब उस व्यापारी ने उस पेड़ के नीचे एक जाल बिछा दिया और उस पर खूब सारे चावल के दाने बिखरा दिए। ये सब कर वो एक पेड़ के पीछे छुप गया और कबूतरों के आने का इंतज़ार करने लगा।
कुछ देर में कबूतर आए और पेड़ पर बैठ गए। आपस में बातें करते हुए उनकी नज़र जब जमीन पर पड़े चावल के दानों पर पड़ी तो सबका मन उन्हें खाने को हुआ। और सब उन दानों पर टूट पड़े। ये देख उनके सबसे बूढ़े और समझदार कबूतर को कुछ शक हुआ।
उसने आवाज लगाई कि सब चावल छोड़ फ़ौरन वापिस आजाओ। लेकिन चावल खाने के लालच में किसी ने उसकी बात नहीं मानी और मजे से चावल खाने लगे।
तभी पेड़ के पीछे छिपे व्यापारी ने रस्सी खींची और सब के सब कबूतर उस जाल में फँस गए। व्यापारी खड़ा हसने लगा।
लालच करने और अपने बुजुर्ग की बात ना मानने का नतीजा देख सब चिल्लाने लगे।
तभी कबूतरों के उसी बुजुर्ग ने सबको एक ही दिशा में पूरे जोर से उड़ने का आदेश दिया। फिर क्या था, सबने जोर लगाया और सारे कबूतर उस जाल को ही ले हवा में उड़ने लगे।
उड़ते उड़ते वो सब अपने पुराने दोस्त चूहे के पास पहुंचे। चूहे ने उस जाल को अपने दातों से काट कर सब कबूतरों को आज़ाद करवा दिया।
तभी कहते हैं, लालच बुरी बाला है। और अपने से बड़े की बात ना मानना कोई अच्छी बात नहीं। अगर कबूतरों ने अपने बुजुर्ग की बात मानी होती तो क्या जाल में फंसते। अपने से बड़ों की बात ध्यान से सुनो और उस सुझाव के अनुसार कार्य करो तो कोई परेशानी नहीं होगी।
कैसा हो सच्चा मित्र
झील किनारे एक जंगल में हिरण, कछुआ और कठफोड़वा मित्र भाव से रहते थे। एक दिन एक शिकारी ने उनके पैरों के निशान देखकर उनके रास्ते में पड़ने वाले पेड़ पर एक फंदा लटका दिया और अपनी झोपड़ी में चला गया। थोड़ी ही देर में हिरण मस्ती में झूमता हुआ उधर से निकला और फंदे में फंस गया।
वह जोर से चिल्लाया - बचाओ। उसकी पुकार सुनकर कठफोड़वा के साथ कछुआ वहां आ गया। कठफोड़वा कछुए से बोला- मित्र तुम्हारे दांत मजबूत हैं। तुम इस फंदे को काटो। मैं शिकारी का रास्ता रोकता हूं।
जैसे ही कछुआ फंदा काटने में लग गया। उधर कठफोड़वा शिकारी की झोपड़ी की तरफ उड़ चला। उसने योजना बनाई कि जैसे ही शिकारी झोपड़ी से बाहर निकलेगा, वह उसे चोंच मारकर लहूलुहान कर देगा। उधर शिकारी ने भी जैसे ही हिरण की चीख सुनी तो समझ गया कि वह फंदे में फंस चुका है। वह तुरंत झोपड़ी से बाहर निकला और पेड़ की ओर लपका। लेकिन कठफोड़वे ने उसके सिर पर चोंच मारनी शुरू कर दी। शिकारी अपनी जान बचाकर फिर झोपड़ी में भागा और पिछवाड़े से निकलकर पेड़ की ओर बढ़ा।
लेकिन कठफोड़वा शिकारी से पहले ही पेड़ के पास पहुंच गया था। उसने देखा की कछुआ अपना काम कर चुका है, उसने हिरण और कछुए से कहा - मित्रों जल्दी से भागो। शिकारी आने ही वाला होगा।
यह सुनकर हिरण वहां से भाग निकला। लेकिन कछुआ शिकारी के हाथ लग गया। शिकारी ने कछुए को थैले में डाल लिया और बोला इसकी वजह से हिरण मेरे हाथ से निकल गया। आज इसको ही मारकर खाऊंगा।
हिरण ने सोचा उसका मित्र पकड़ा गया है। उसने मेरी जान बचाई थी, अब मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं उसकी मदद करूं। यह सोचकर वह शिकारी के रास्ते में आ गया।
नाविक गुरु
प्राचीन मगध के किसी गांव में एक ज्ञानी पंडित रहते थे। वे भागवत कथा सुनाते थे। गांव में उनका बड़ा सम्मान था। लोग महत्वपूर्ण विषयों पर उनसे ही विचार-विमर्श कर मार्गदर्शन लेते थे।
एक बार पंडितजी को राजधानी से राज्य के मंत्री का बुलावा आया। पंडितजी गांव की नदी नाव से पार कर राजधानी पहुंचे। मंत्री ने उनका अतिथि सत्कार कर कहा- मैंने आपके ज्ञान की काफी प्रशंसा सुनी है। मैं चाहता हूं कि आप प्रतिदिन यहां आएं और मुझे तथा मेरे परिजनों को कुछ दिन भागवत कथा सुनाएं।
पंडितजी ने खुशी-खुशी स्वीकृति दे दी। अब पंडितजी प्रतिदिन नदी पार कर मंत्री को भागवत कथा सुनाने जाने लगे। एक दिन जब पंडितजी नदी पार कर रहे थे तो एक घड़ियाल ने पानी से सिर बाहर निकालकर कहा- पंडितजी, आते-जाते मुझे भी भागवत कथा सुना दिया कीजिए, मैं आपको मोटी दक्षिणा दूंगा, यह कहकर उसने अपने मुंह एक हीरों का हार निकालकर पंडित को दिया।
पंडितजी हार देखकर भूल ही गए कि उनको मंत्री के यहां कथा सुनाने जाना है तथा तब से वह घड़ियाल रोज उन्हें हीरे-मोती देता।
एक दिन नाव चलाने वाला नाविक उन्हें देखकर हंस पड़ा। पंडितजी ने हंसने का कारण पूछा तो वह बोला- मैं इसलिए हंस रहा हूं कि क्या आपने इतने शास्त्रों का ज्ञान सिर्फ एक घड़ियाल को उपदेश देने के लिए लिया है? आपके ऐसे ज्ञान की परिणति देख मुझे हंसी आ गई।
पंडितजी को अपने लोभी स्वभाव पर शर्म आ गई और फिर वे कभी घड़ियाल को कथा सुनाने नहीं गए।
बीरबल की चतुराई
शीर्षक : बीरबल की चतुराई
कहानि :
रामलाल के खेत में ना तो कोई कुआँ था और बारिश ना होने की वजह से सूखा पड़ा हुआ था। चारों तरफ हरियाली की लहर दिखती थी। मगर रामलाल के खेत में सूखे की मार झेलती तबाही ही दिखती थी।
उसके खेत से सटा खेत एक सूदखोर और लालची व्यक्ति भीम सिंह का था। उस खेत में दो कुँए थे जिन की वजह से उसके खेत में फसल खूब होती थी।
रामलाल ने सोचा कि अगर मैं भीम सिंह से एक कुआँ खरीद लूँ तो मेरी फसल को भी भरपूर पानी मिल पायेगा। यह विचार आते ही उसने भीम सिंह से सौदा कर एक कुआँ खरीद लिया।
अगले दिन रामलाल ख़ुशी ख़ुशी खेत पर पहुंचा और अपने खरीदे हुए कुँए से पानी लेने लगा। तभी भीम सिंह वहाँ आ टपका और उसे पानी लेने से रोक दिया। जब कारण पुछा तो बोला
” तुमने कुआँ खरीदा है लेकिन उसमे पानी तो मेरा है। पानी चाहिए तो उसके पैसे अलग से देने होंगे।”
यह सुन बेचारा रामलाल दुखी हो घर लौट आया। उसे उम्मीद नहीं थी की भीम सिंह लालच की वजह से इतना नीचे गिर जाएगा। घर पहुँच उसने अपनी पत्नी को सारा किस्सा सुनाया तो वो भी हक्की बक्की रह गयी। आखिर दोनों ने फैसला किया कि इसका हल तो सिर्फ सम्राट अकबर के दरबार में ही मिलेगा।
सम्राट अकबर के दरबार में पहुँच रामलाल ने अपनी आप बीती सुनाई और सम्राट से इन्साफ की गुहार लगायी। सम्राट ने बीरबल को बुलाया और इस अजीब से मुक़दमे को सुलझाने को कहा। बीरबल ने सारी बात सुन सिपाहीओं को भेज भीम सिंह को दरबार में बुला लिया।
बरिबल ने जब भीम सिंह से झगड़े का कारण पुछा तो उसने वही बात दोहरा दी।
” जनाब, इसने कुआँ खरीदा है पानी नहीं।”
बस फिर क्या था। बीरबल का दिमाग फ़ौरन हरकत में आया और उसने बहुत ही चतुराई से भीम सिंह की कही बात में से ही झगड़े का हल निकल लिया।
” भीम सिंह, माना की रामलाल ने सिर्फ कुआँ ही खरीदा है और उसका पानी नहीं। तो इसका मतलब हुआ की पानी तुम्हारा है।” यह बात सुन भीम सिंह ने खुश हो हाँ में सर हिला दिया।
तब चतुर बीरबल ने अपना फैसला सुनाया
” क्योंकि कुआँ रामलाल का है इसलिय भीम सिंह को उसमे अपना पानी रखने का कोई हक़ नहीं है। भीम सिंह तुम फ़ौरन अपना सारा पानी उस कुँए से निकल लो।”
इतना सुनते ही भीम सिंह का सर चकराने लगा। उसकी चालाकी उस पर ही भारी पड़ने लगी। हाथ जोड़ते हुए वो बीरबल के पैर पर गिर माफ़ी माँगने लगा। बीरबल ने उसे रामलाल से माफ़ी मांगने को कहा और दोबारा ऐसी चालाकी दिखाने पर जेल जाने की चितावनी दे छोड़ दिया। अपनी गलती का एहसास कर भीम सिंह ने रामलाल से माफ़ी मांगी।
इस तरह कुआँ और उसक पानी उसके असली मालिक रामलाल को मिल गया।
देखो, कैसे चतुर बीरबल ने एक लालची इंसान की चालाकी को मूर्खता साबित कर फैसला सचाई के हक़ में दिया।
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